स पर्य
गाच्छुक्रम्कायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविधम ।
कविर्मनीषि परिभूः
स्वयम्भू र्याथातथ्यतोर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः II 8 II
हर जगह छाया हुआ वह, पर हमें दिखता नहीं
पहुँचता वह हर समय है , पर हमें मिलता नहीं
शुद्ध है निर्मल है वह, ना कोई तन-देह है
कोई नस नाड़ी नहीं , फिर भी ना संदेह है
आता जाता हर जगह है, फिर भी वह चलता नहीं
ना कोई कर्ता है उसका , ना कोई कारण कहीं
श्रृष्टि का निर्माण करता, करता वह धारण जमीं
भूमि हिल जाती है कतिपय , वह मगर हिलता नहीं
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