सम्भूतिं च विनाशं
च यस्तद्वेदोभयं सह ।
विनाशेन मृत्युं
तीर्त्वा संभूत्यामृतमश्नुते II 11 II
नहीं निरर्थक ये जग जीवन
ना ही सृष्टि
अपार है
नर का तन मन
पाया हमने
प्रभु का ही
उपकार है
जीवन के इन
भोगों से हम
जीवन नैया पार
करें
मन में इतना
ज्ञान भरा हो
मृत्यु से भी
प्यार करें
ओजस्वी हो जीवन
इतना
ऐसे अपने कर्म
हो
मोक्ष मिले -
उद्देश्य हो इसका
जीवन का ये धर्म
हो
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