सुधी पाठकों ! वेद-सार में संस्कृत में लिखे मंत्र वेदों और वेदों पर आधारित पुस्तकों से लिए गए हैं .फिर भी ट्रांस लिट्रेसन के कारण छोटी मोटी त्रुटि संभव है . वेद मन्त्रों के अर्थ संस्कृत के बड़े बड़े विद्वानों द्वारा किये गए अर्थ का ही अंग्रेजीकरण है . हिंदी की कविता मेरा अपना भाव है जो शब्दशः अनुवाद न होकर काव्यात्मक रूप से किया गया भावानुवाद है . इस लिए पाठक इस ब्लॉग को ज्ञान वर्धन का साधन मानकर ही आस्वादन करें . हार्दिक स्वागत और धन्यवाद .



Thursday, June 26, 2014

ईशोपनिषद मन्त्र - १७

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम
यो सावादित्ये पुरुषः सोसावाहम्  I  औम  खं  ब्रह्म II 17 II  

तू है व्याप्त सदा इस जग में 
सूर्य चन्द्र ग्रह  तारों में 
तेरा रूप सदा दिखता  है 
फूलों और बहारों में 

यह मेरा ही अंधापन है 
मुझको नहीं दिखाई दे 
जग की झूठी चमक दमक में 
तेज तेरा न दिखाई दे 

प्रभु ! मेरे ये चक्षु खोल दो 
तुझको जान सकूं, भगवन 
मैं क्या हूँ , मुझमें क्या है 
इतना पहचान सकूँ , भगवन 

ईशोपनिषद मन्त्र -१६

अग्ने नये सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । 
युयोध्यस्म्ज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां  ते नम उक्तिं विधेम II 16 II 

हो ज्ञान के भण्डार तुम , हो दिव्य पालनहार तुम 
तुम कर्म सबके जानते , धन धान्य के आगार तुम 

हम तुच्छ प्राणी विश्व के , हैं हाथ फैलाये खड़े 
कर दो सुखी संसार तुम , ऐश्वर्य के भण्डार तुम 

दुर्बुद्धि को हर लीजिये , दुखों से मुक्ति दीजिये 
करते हो बेडा पार तुम , हो विश्व के करतार तुम 

ईशोपनिषद मन्त्र -१५

वायुरनिलम मृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् । 
औम् ऋतो स्मर । क्लिवे स्मर । कृतं स्मर II 15 II 

पञ्च महाभूतों से निर्मित 
तन - जिसमें तल्लीन है 
पञ्च महाभूतों में इक दिन 
मिल कर होय विलीन हैं 

उस क्षण को तू सोच अभी ले 
प्राण पखेरू जाते जब 
जीवन को तू उसी सोच से 
यूँ परिपक्व बना ले अब 

सब कुछ नश्वर है तेरा बस 
अमर आत्मा होती है 
उत्तम कर्म सुमर  जीवन के 
वो  निधि संचित होती है 
इस शरीर के बाद नहीं है 
इस शरीर का मान रे 
यात्रा का अंतिम पड़ाव है 
सब का ही शमशान रे 

ईशोपनिषद मन्त्र -१४

विध्यां चा विध्यां च यस्तद्वेदो भयं सह । 
अबविध्यया मृत्युं तीर्त्वा विध्यया मृतमश्नुते II 14 II 

विद्या और अविद्या में बस 
इतना अंतर होता है 
मोक्ष हमेशा इस जीवन के 
तदनंतर ही होता है 

जीवन की भौतिकता को जो 
जीवन में ही जान गए 
ईश्वर  की महती सत्ता को 
समझो वो पहचान गए 

केवल भौतिक ज्ञान अधूरा 
आधा है अध्यात्म भी 
जन्म मृत्यु और मोक्ष से जुडा 
आत्म और परमात्म भी 

ईशोपनिषद मन्त्र -१३

अन्य देवाहु र्विध्याया अन्यदहुरविध्यायाः । 
इति शुश्रुम् धीराणां ये नस्त द्विचचक्षिरे II 13 II  

कुछ कहते - सब कुछ यह जीवन 
जीवन को हर पल  जी लो 
भौतिकता में है सुख सारा 
भौतिकता का रस पी लो !

और कहे कुछ ज्ञानी ऐसे 
यह जीना बेकार है 
ईश्वर  के चिंतन में बस सुख 
मिथ्या सब संसार है 

जीवन की सच्चाई यह है 
दोनों ही तो सुखमय है 
भौतिक सुख के संग संग चिंतन 
ऐसा अगर समन्वय है 

ईशोपनिषद मन्त्र -१२

अन्धन्तमः प्रविशन्ति ये विध्यामुपासते । 
ततो भूय इव ते तमो य उ विध्यायां रताः   II 12 II 

भौतिकता का ज्ञान जरूरी 
किन्तु नहीं यह अंतिम छोर 
जीवन में आगे बढ़ने को 
यह तो है बस साधन डोर 

ज्ञान शास्त्र का भी आवश्यक 
किन्तु नहीं यह पूरण इष्ट 
चिंतन बढ़ता स्वाध्याय से 
चिंतन से मिलता अभीष्ट 

अंधकार में पड़े हुए वो 
जो भौतिकता तक सीमित 
उससे गहन अँधेरे में वो 
डूबे ग्रंथों में नियमित 


ईशोपनिषद मन्त्र -११

सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह । 
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा संभूत्यामृतमश्नुते II 11 II 

नहीं निरर्थक ये जग जीवन 
ना ही सृष्टि अपार है 
नर का तन मन पाया हमने 
प्रभु का ही उपकार है 

जीवन के इन भोगों से हम 
जीवन नैया पार करें 
मन में इतना ज्ञान भरा हो 
मृत्यु से भी प्यार करें 

ओजस्वी हो जीवन इतना 
ऐसे अपने कर्म हो 
मोक्ष मिले - उद्देश्य हो इसका 
जीवन का ये धर्म हो   

ईशोपनिषद मन्त्र -१०

अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात । 
इति शुश्रुम् धीराणां ये नस्त्द्विचचक्षिरे II 10 II 

अध्ययन करे इस सृष्टि का 
इस धरा का , और वृष्टि का 
जो खोजते आरोग्य को 
हर वस्तु  को हर भोग्य को 
उपदेश देकर ज्ञान का 
उपकार कर इंसान का 

अध्यात्म को कुछ मानते 
ईश्वर को जो पहचानते 
जो ढूंढते उस शक्ति को 
वो कर रहे तप  भक्ति को 
उपकार वो भी कर रहे 
कल्याण जग का कर रहे 

हैं रास्ते  दोनों सुनो 
तुम रास्ता जो भी चुनो 
इस लोक का कल्याण हो 
उस लोक की पहचान हो 
उपकार करना विश्व का 
कल्याण  करना विश्व का 

ईशोपनिषद मन्त्र -९

अन्धन्तमः प्रविशन्ति ये सम्भूति मुपासते । 
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रताः II 9 II 

बस प्रकृति  को ही जानते 
बस सत्य उसको मानते 
जो पूजते जड़ प्रकृति को
सच मानते इस प्रवृति को 
वो डूबते संसार में 
वो डूबते अंधकार में !

जो ढूंढते हैं सृष्टि में 
अपनी ही कल्पित दृष्टि में 
उस शक्ति दिव्य स्वरुप को 
इक कल्पना के रूप को 
वो भी हैं यूँ कुछ अटकते 
अंधकार में ही भटकते !

ईशोपनिषद मंत्र -८

स पर्य गाच्छुक्रम्कायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविधम । 
कविर्मनीषि परिभूः स्वयम्भू र्याथातथ्यतोर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः  II 8 II 
                             
हर जगह छाया हुआ वहपर हमें दिखता नहीं 
पहुँचता वह हर समय है , पर हमें मिलता नहीं

शुद्ध है निर्मल है वह, ना कोई तन-देह है
कोई नस नाड़ी नहीं , फिर भी ना संदेह है
आता जाता हर जगह है, फिर भी वह चलता नहीं

ना कोई कर्ता है उसका , ना कोई कारण कहीं 
श्रृष्टि का निर्माण करता, करता वह धारण जमीं 
भूमि हिल जाती है कतिपय , वह मगर हिलता नहीं